Thursday, August 25, 2011

जनतंत्र का बोझ

हमारे चुने हुए कुत्ते हमे ही काटते हैं ,
हर 5 साल बाद ये हमारी गलियों से भौकते हुए गुज़र जाते हैं .
जो बोटियाँ 5 साल में नोची थी उनके कुछ टुकड़े फेक कर ये बहुमत को रिझाते हैं ,
कभी TV , कभी car, to कभी समाज बाटते हैं।

आम आदमी इनकी चाल समझ नहीं पाता ,
उसकी आँखों मे भूक होती है ,
वो रोटी से आगे कुछ देख नहीं पाता .

जब कभी इस जनतंत्र का भ्रम टूटता है, आम आदमी मशाले लिए सड़क पे उतरता है
तभी कहीं से ज्ञानी प्रकट होते हैं, नीति अनीति का पाठ पठित करते हैं
कहते हैं की शिक्षा इस भ्रष्टाचार का मूह तोड़ जवाब है ,
पर जनतंत्र मे क्रांति घोर पाप है

अरे किस सिक्षा का हवाला वो देते हैं
जो कभी इन तक पहुँच ही नहीं पाती , सरकारी खजाने से निकले कागज़,
किताबों के पन्ने न बनकर इनकी जेबों की धौंस है बढ़ाती।

लाचार आदमी अपना दर्द लिए कानून के पास जाता है ,
कानून उल्टा उसकी लाचारियों को बढ़ता है ।
कानून कहता है तू है कौन , कैसे यूं मूह उठाए चला आया
पहले खुद ही नियुकत किया , अब खेद प्रकट करने आया

हैरान आदमी , हर तरफ सिर्फ भक्षकों को पाता है
देख के उनकी शक्ति , उसका विश्वास टूट जाता है
क्रोध मे आके वो फिर हथियार उठाता है
कभी उनपे तो कभी खुदपे गोली चलाता है ।

ज्ञानी फिर प्रकट होते हैं , कहते हैं -हम हिंसा की घोर निंदा करते हैं
आओ इस समस्या पे बैठकर थोड़ा विचार विवाद करते हैं
जाने क्यूँ लोग आपस मे लड़ते झगड़ते हैं
असीक्षित हैं , इसलिए ऐसा व्याहवार करते हैं
शिक्षा ही इस अलगाववाद का जवाब है ,
पर जनतंत्र मैं क्रांति घोर पाप है
पर जनतंत्र मैं क्रांति घोर पाप है ।

---- रवि झा

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